हम महिलाओं को शिक्षा, स्वास्थ्य, और आर्थिक स्वतंत्रता प्रदान करके उन्हें सशक्त बनाना चाहते हैं।हमारे प्रयास हैं कि हर जरूरतमंद को जीवन-रक्षक रक्त मिल सके और रक्तदान के महत्व को बढ़ावा दिया जा सके।महिलाओं को आत्म-रक्षा के लिए शस्त्र कला सिखाकर हम उनके आत्म-विश्वास को बढ़ाना चाहते हैं।
समाज की सेवा और सशक्तिकरण के प्रति हमारी गहरी प्रतिबद्धता है। हम हर परियोजना में पूर्ण समर्पण के साथ काम करते हैं।सभी व्यक्तियों के साथ समान और निष्पक्ष व्यवहार सुनिश्चित करना हमारी प्राथमिकता है। हम हर व्यक्ति को समान अवसर प्रदान करते हैं और उनके अधिकारों की रक्षा करते हैं।
हमारी दृष्टि एक समाज है जहाँ हर महिला को सशक्त और आत्म-निर्भर बनाया जाए, जहाँ रक्तदान के माध्यम से जीवन की रक्षा की जाए, और जहाँ शस्त्र कला के माध्यम से आत्म-रक्षा की क्षमता को बढ़ावा दिया जाए। एक ऐसा वातावरण निर्माण करना चाहता है जहाँ समाज की हर महिला और नागरिक को समर्पित संसाधन और समर्थन प्राप्त हो।
मैंने बचपन से ही देखा था कि हमारे समाज में उन महिलाओं पर क्या गुजरती है, जिन के पति का देहांत हो जाता है, जो विधवा हो जाती हैं।जबकि 21 वीं सदी के इस शिक्षित और सभ्य कहे जाने वाले समाज में हम रहते हैं, फिर भी ये कैसी शिक्षा, कैसी सभ्यता ?
बचपन से ही ऐसी किसी महिला के बारे में ख्याल आते ही मन सिहर उठता, बहुत डर लगता, ये सोचकर कि, यदि किसी के साथ ऐसा हो तो उसकी क्या दशा करेगा ये समाज ?और मन से एक ही आवाज़ आती…..आखिर कब ?आखिर कब बंद होंगी, किसी विधवा को जीते जी मौत के समान नर्क में धकेल देने की ये कुप्रथायें ? आखिर कब….?वक्त का पहिया चलता गया और मैं बड़ी हुई, फिर मेरी शादी हुई, बहुत अच्छा जीवनसाथी मिला ।
उन्होंने मुझे शिक्षित भी किया और अपने पैरों पर खड़ा भी किया । मेरी एक अलग पहचान बनाई । बहुत खुशी-खुशी हमारा जीवन बीत रहा था कि, अचानक !
अचानक मेरे साथ एक ऐसा हादसा हुआ !एक हादसा ! जो सपनों में भी डर जाता था मुझे, सहम जाती थी मैं ऐसा सोचकर भी !और आज मेरे साथ वही हुआ , मेरे पति का देहांत हो गया, इस समाज के बीच मुझे अकेला छोड़कर जा चुके थे वो ।मुझे तो होश भी नहीं था, उपर से ये समाज मेरे होश संभालने का इंतज़ार इसलिए कर रहा था, कि मुझे आधी जिंदगी और आधी मौत की अंधेरी बेहोशी दे सके ।पहले ही मैं अपनी पूरी दुनिया ही खो चुकी थी, जो मेरा था वो भी तो छीन लिया था वक्त ने मुझसे ।जिसको अपनी भी सुध नहीं, उसके साथ रीति-रिवाज किए जा रहे थे कुछ समाज के लोग ।जबकि उस वक्त उसे अपनेपन की बहुत ज़रूरत थी । जिसे ज़रूरत थी प्यारभरी थपकियों की, हौसले की, सहानुभूति देकर मेरे आंसू पोंछने के बजाय… मुझे अपने समाज ने मेरे अपने ही घरौंदे में अलग सा कर दिया, जैसे अछूत ही कर दिया हो मुझे।मेरे लिए एक अलग बिस्तर लगाया गया, मेरा चेहरा देखना भी इस सभ्य समाज में अभिशाप माना जाता रहा है सदियों से, इसलिए मैं अपने ही बनाये नीड़ में जैसे पराई होती जा रही थी ।मुझे इतने बुरे बर्ताव की आशंका तो नहीं थी, पर हाय री बिधना… तेरे लेख किसी की समझ में कब आते हैं ?
ख़ैर, जिसके साथ वक्त ने ही चोट कर दी हो, वह इस बेरहम दुनिया से प्यार की उम्मीद कर भी कैसे सकता था ? मुझे नहीं मालूम था कि मेरी ऐसी दुर्गति की जायेगी, मुझे तो बाद में मालूम पड़ा कि ऐसा किया जाना बहुत जरूरी है, क्योंकि यही परंपरायें रही है, सदियों सदियों से हमारे महान समाज की…। मुझसे बोला गया कि मैं अपने हाथ पैर सब ढंक कर रखूं ।
अरे ! जिसकी मांग का सिंदूर तक वक्त की आंधी ने उड़ा दिया हो, जिसका लाल जोड़ा भी मौत का वो भयंकर तूफान उड़ा ले गया हो, अब वह किस संपत्ति को, और भला क्यूं और किससे ढंँक कर रखे?उस वक्त मुझे कपड़े पहनने का भी होश नहीं था, तो मेरी बहनों ने मुझे कपड़े पहनाने चाहे कि बहन ये पहना देते हैं, तो उन्हे मना कर दिया गया ये सब नहीं चलेगा अब । तब जिस पिता ने बेटी के हाथ पीले किए थे, उसी पिता के सामने उसकी बेटी को जबरजस्ती उल्टे फेरे दिलाए जाते हैं, वह भी उस बेटी को, जो महज़ एक जिंदा लाश से ज्यादा कुछ और रह भी नहीं गयी थी। जिस मां ने हमेशा अपनी बेटी को पूरे श्रंगार में देखा हो उस मां से सफेद साड़ी मंगाई जाती, और बोला जाता है कि सफेद साड़ी लेकर आना बेटी के लिए । मैं बहुत रो रही थी कि मेरे लिए ऐसा कुछ मत लाना , मैं ऐसा कुछ नहीं पहनूंगी । तो कुछ लोगों द्वारा जवाब दिया जाता है कि चुप रहो, ये सब करना ही होगा । मेरी बेटी ने मुझे हमेशा लाल बिंदी में देखा था, लेकिन जब उसके सामने मुझे मेरी रिश्तेदार महिलाओं ने काली बिंदी लगायी तो मेरी बेटी ने तुरंत निकाल फेंकी, बोलती है मेरी मम्मी लाल बिंदी लगाती हैं हमेशा, तो वही लगायेंगी, क्योंकि उन पर वही अच्छी लगती है । जिस उम्र में लोग अपना जीवन शुरू करते हैं उस उम्र में मेरी जिंदगी खत्म हो चुकी थी ।
मैं बहुत सदमे में थीं, मुझे कुछ दिनों के लिए हॉस्पिटल में एडमिट करना पड़ा, फिर भी समाज और समाज के रूढ़िवादी लोग, ऐसे लोग जो ये बोलने से भी नहीं चूके, कि जो भी बाकी रीति रिवाज करने हैं वह हॉस्पिटल में जाकर पूरे कर लिये जाऐं। वहीं कुछ लोग मेरे लिए भगवान के समान खड़े रहे, जिन्होंने कहा बस अब और नहीं।
हद होती है हर चीज़ की, मर जायेगी वो भी , आखिर क्यूं और कब तक ऐसा करोगे आप लोग?
क्या उसे ये सब करना ज़रूरी ही है? और वह हैं मेरे बड़े भाई साहब जो रिश्ते में मेरे जेठ जी हैं, लेकिन उन्होंने ऐसे वक्त में एक पिता का फर्ज निभा कर मुझे हौसला दिया और उनसे मेरा भरोसा जागा कि, दुनिया में बुराई अगर है, तो अच्छाई भी है ।मेरे कुछ दोस्तों ने हिम्मत की और बोले, कि पलक के साथ ऐसा कुछ नहीं होगा ।वो सब मिलकर लड़ रहे थे समाज से मेरे लिए,पर इधर मैं इन सबका कारण खुद को मानकर इतनी ग्लानि से भर चुकी थी कि मैंने भी मौत से यारी करने का मन बना लिया था । सोच लिया था अब कि मुझे अब जीना ही नहीं है। बस अब और नहीं , मेरा जीवन मुझे यही समाप्त करना है, जिसके बिना मैं एक पल नहीं रह सकती थी उसके बिना पूरी जिंदगी कैसे गुज़ारूंगी?आखिर ऐसी जिंदगी जीकर मैं करूंगी भी क्या ? नहीं जीना चाहती थी मैं अब ।एक औरत के लिए जिंदगी का सबसे बड़ा दुख यही है ग़र, उसकी हालत न तो जीने की रहे, न मरने की । और कुछ समाज के रीति रिवाज उसको जीते जी मार ही देते हैं ।
मगर भला हो ऐसे देवतुल्य मेरे फ़रिश्तों का भी, जिन्होंने मुझे जीने का नया हौसला दिया और मुझे मौत के मुंह से खींच लाये । हर समाज में जो एक विधवा पत्नी खोती है, वो शायद ही किसी ने खोया होगा।जिस ने अपना संसार अपना सब कुछ खो दिया हो, लेकिन फिर भी समाज उसको बार बार मरने पर मजबूर करता है, तिल तिल कर मारता है उसे, उसको यह एहसास दिलाता है कि तुम एक विधवा हो, तो एक विधवा की जिंदगी जियो ।लेकिन कहते हैं ना, फ़रिश्ते ख़ून के रिश्तों में नहीं होते मगर आत्मा और दिल से जुड़े होते हैं।जो हमें हमेशा खुश देखना चाहते हैं, ऐसे ही मेरे देवता दोस्तों ने मुझे बहुत मदद की आगे बढ़ने के लिए और फिर से मुझे हौसला दिया कि तुम्हारे पति के जो भी सपने थे, जो काम वह अधूरा छोड़ कर चले गये हैं, उनको पूरा करो तुम ।अपनी बेटी के लिये जियो।
मेरी रातें, रोते-रोते गुज़र जाती, और दिन मेरे सूने पन में। फिर एक दिन मुझे रानी अवंतीबाई का ख्याल आया, आखिर वह भी तो विधवा ही थी, मगर उन्होंने भी हिम्मत नहीं हारी तलवार उठाई और इतिहास रच दिया । बस फिर क्या था ?मैंने भी सोचा कि क्यूं न मुझे भी आनंद जी के नाम से ही जाना जाये। मेरे लिए सब कुछ मेरे आनंद हैं, जिंदगी के साथ भी, जिंदगी के बाद भी । और अब उनके नाम को जिंदा रखना है, तो उनके लिए ही कुछ करना है ।फिर मैंने अपने परिवार और अपने दोस्तों की मदद के साथ उन्हीं के नाम से एक संस्था को खड़ा करने का प्रयास किया । संस्था नहीं वह एक परिवार है आनंद का, और उसका नाम आनंद है । जो कि अब धीरे-धीरे दोस्तों की मदद से, थैलेसीमिया पीड़ित बच्चों की मदद कर रही है, मैं तैयार हूं हर बच्चे के लिए जो बिलखता है, इस दर्द से । मगर मेरे मन में आज भी पीड़ा उन महिलाओं के लिए, जो मेरा ही रूप हैं, जिन्होंने खो दिया है अपने आनंद को, जो तड़प रहीं हैं उन तथाकथित अपनों और अपने से दिखने वाले उस समाज के बीच।
इसलिए उन सभी बहनों की सी ही अपनी करुण कथा लेकर आयी हूं आपके द्वार, आपके सामने । एक अपील लेकर… कि ऐसी प्रथा को तोड़ दिया जाये, जो हमारी हमारी बहन बेटियों की जिंदगी बद से बदतर कर दे । और ऐसी महिलाओं को विधवाओं की तरह नहीं, बल्कि एक आम महिला की तरह जीने का हक मिले…
ये थी मेरी कहानी, मेरी ही ज़ुबानी…।
मैं भी तुम्हारे ही पुरुष प्रधान समाज का हिस्सा हूं।
अपनी बदनसीबी का, एक बेजान सा किस्सा हूं ।
ऐ देवता पुरुष, ग़र पसीजा हो कलेजा तेरा भी, मेरा रुदन मेरी वेदना सुनकर।
तो अपने कानून में कुछ नरमाई कर, मुझ औरत की भी लाज रखले ।
आप सभी लोगों से मेरा निवेदन है कि, रूढ़िवादी कुप्रथाओं और थोथी परंपराओं के नाम से महिलाओं को प्रताड़ित होने से बचाएं और समाज को इस विषय में जागरूक करें ।
पलक आनंद नरवरिया
संचालक:- संस्था
“आनंद है”